आदि शक्ति पाटेश्वरी के मंदिर के पृष्ठ भाग में उत्तर दिशा में सूर्यकुण्ड की ओर शताब्दियों से स्थापित सुप्रसिद्ध नाथ योगी सिद्ध श्री रत्ननाथ जी के दरीचे का इस शक्तिपीठ के अतीत और वर्तमान में भी बड़ा महत्वपूर्ण स्थान है। एक समय था जब वर्तमान देवीपाटन स्थान और क्षेत्र नेपाल स्थित चौघरा दाङ्ग राज्य का हिस्सा हुआ करता था। अपने समय के महान सिद्ध रत्ननाथ जी वर्तमान नेपाल के राप्ती अंचल में दाङ्ङ्ग चौधरा के राजा थे। सिद्ध रत्ननाय नामक नाथ सम्प्रदाय के एक छन्दोबद्ध संस्कृत ग्रन्थ के अनुसार एक बार सिद्ध योगी कृष्ण पाद जी जो लोक में कानीपाव या कानिपानाथ के नाम से प्रसिद्ध थे, अपने सतीर्थ महायोगी गुरु गोरक्षनाथ जी से अनावश्यक विवाद में उलझ गये। जिससे अप्रसन्न होकर श्रीनाथ जी ने कानीपानाथ को उनके असंयत, असंगत आचरण के लिए खेद प्रकट करते हुए उन्हें योग-भ्रष्ट हो जाने का शाप दे दिया। विवाद का आवेश शान्त होने पर जब कानीपानाथ को वस्तु स्थिति का ज्ञान हुआ, तब उन्होंने श्रीनाथ जी के शाप को अमोध जानते हुए उनसे प्रार्थना की कि कृपया हमारी शाप मुक्ति का उपाय भी बतायें।
स्वभावतः परम दयालु श्रीनाथ जी ने होनी का उल्लेख कर बताया कि यदि मेरे प्रति तुम्हारी भक्ति बनी रही तो तीसरे जन्म में अन्यथा विरोधाभाव रखने पर दूसरे जन्म में ही शाप से मुक्ति मिलेगी। श्रीनाथ जी का वक्तव्य सुनकर श्री कानीपानाथ ने तत्काल योगबल से अपना वर्तमान पार्थिव शरीर त्याग दिया और एक नव्य-दिव्य शरीर धारण कर शिशु रूप में आकाश मार्ग से जाकर नेपाल में वन खण्ड मण्डल दाङ्ग देवखुरी देवीपाटन आदि के तत्कालीन राजा माणिक्य परीक्षक के समक्ष उपस्थित हो गये। राजा ने उन्हें देवी चमत्कार से प्राप्त पुत्र मानकर रत्न परीक्षक नाम दिया। यथासमय राजकुमार रत्न परीक्षक दाङ्ग चौधरा के राजा हुए, उन्होंने श्रद्धापूर्वक श्रीनाथजी की आराधना काफी समय तक की,
किन्तु जब उन्हें इसका सद्यः कोई फल नहीं
प्राप्त हुआ तब उन्होंने श्रीनाथ जी के पूर्वोक्त कथन का स्मरण कर श्रीनाय जी और योगिजनों के प्रति जानबूझकर दुर्व्यवहार करना प्रारम्भ कर दिया। राजा ने तमाम योगियों को जबर्दस्ती साधना और तपस्या से विरत कर उन्हें कुआँ, बावड़ी और तालाब आदि खोदने के काम में लगा दिया। योगियों के इस प्रकार के उत्पीड़न को जानकर महायोगी गोरक्षनाथ जी वहाँ उपस्थित हुए और उन्होंने योगियों को,
जो राजाज्ञा से श्रमिक का काम कर रहे थे, काम करने से रोक दिया। राजकर्मचारियों ने राजा रत्नपरीक्षक के पास जाकर इसकी तुरन्त खबर दी। वास्तविकता जानते हुए राजा ने समाचार पाते ही अप्रसन्नता और क्रोध का प्रदर्शन करते हुए वहाँ पहुँचकर श्रीनाथ जी से विवाद प्रारम्भ कर दिया। परस्पर विवाद में सात दिन बीत गये। विवाद स्थल पर इतना क्रोधानल बरसा कि आज भी इसकी चर्चा करने पर वहाँ अग्नि भड़क उठती है। अन्ततः राजा रत्नपरीक्षक ने जो पूर्वजन्म में महायोगी श्री गुरू गोरक्षनाथ जी के सतीर्थ कृष्णपाद (कानीपानाथ) नामक सिद्ध योगी थे, अपनी पराजय मानकर श्रीनाथ जी के कर कमल को अपने शिर पर क्षमार्थ रख लिया। इस प्रकार दूसरे ही जन्म में कानीपानाथ को शाप से मुक्ति मिल गयी और श्रीनाथ जी ने शक्तिपात द्वारा राजा रत्नपरीक्षक को तमाम अभीष्ट योगसिद्धियाँ वापस देकर उन्हें रत्ननाथ नामक महासिद्ध नाथ योगी बना दिया। प्रसन्न श्रीनाथ जी ने उन्हें अपना मनोवांछित फल देने वाला दिव्य पात्र भी प्रदान किया, जो पात्र देवता के रूप में आज भी श्री रत्ननाथ मठ दाङ्ङ्ग चौधरा में सुरक्षित और पूजित है।
सिद्ध योगी रत्ननाथ जी के दो प्रमुख सिद्धासन थे। एक दाङ्ग चौधरा नेपाल में था, दूसरा देवीपाटन तुलसीपुर में। जो अब भारत के बलरामपुर जनपद में स्थित श्री माँ पाटेश्वरी शक्तिपीठ के रूप में विख्यात है।
सिद्ध रत्ननाथ जी ने नेपाल-भारत सहित अफगानिस्तान, काबुल, कन्धार तक कई म्लेच्छ देशों में भी नाथ पन्थ और साधना का प्रचार किया था। योगबल से वे बहुत समय तक धरती पर विराजमान रहे। कहते हैं कि इस्लाम धर्म के प्रवर्तक मुहम्मद साहब ने भी इनसे योग की शिक्षा ली थी। इनकी योग सिद्धि की कई चमत्कारिक घटनाओं का उल्लेख अनेकत्र मिलता है। काबुल में जब म्लेच्छों के आधिपत्य वाले क्षेत्र में योगियों का उत्पीड़न होने लगा तो उन्होंने वहाँ के मुस्लिम शासक को अपने यौगिक चमत्कारों से प्रभावित कर उसे योगियों के उत्पीड़न से विरत किया था। कहते हैं कि वे एक बार काबुल, कन्धार के एक बगीचे में जा पहुँचे। वह बगीचा बहुत दिनों से सूखा हुआ था। उनकी उपस्थिति मात्र से वह सूखा पड़ा बगीचा हरा-भरा हो गया। बाग के माली ने बादशाह को इस यौगिक चमत्कार की और योगी के आगमन की जानकारी दी। वह मन ही मन कुढ़ गया और उसने योगी को अपमानित करने का निश्चय किया। उसका मनोभाव योगबल से जानकर सिद्ध रत्न नाथ जी ने प्रतिकूल रूप में श्रृंगीनाद किया, जिसके प्रभाव से वह म्लेच्छ शासक परिजनों सहित स्वयं भी स्त्री रूप में बदल गया। अब योगी के तपोबल से परास्त बादशाह शरणागत भाव से योगिराज रत्ननाथ जी के पास पहुँचा। उसकी प्रार्थना तथा क्षमा याचना से प्रभावित सिद्ध रत्ननाथ जी ने उसे पुनः पुरुषत्व प्रदान कर उससे फिर कभी किसी योगी का उत्पीड़न न करने का वचन ले लिया। योग और योगियों की म्लेच्छ देशों में रक्षा करते हुए सिद्ध रत्ननाथ जी हिन्दुओं के अलावा इस्लाम धर्मानुयायियों में भी काफी लोकप्रिय हुए जिसके कारण इन्हें हिन्दुओं का गुरु तथा मुस्लिमों का पीर और काबुल का बादशाह भी कहा जाता है। सिद्ध या पीर के रूप में प्रख्यात नाथ योगी रत्ननाय जी की
प्राकट्यभूमि दाङ्ग चौधरा जहाँ वे राजा और सिद्ध भी बने नाथ पंथ और साधना का एक प्रमुख केन्द्र रहा है। यहां कभी-कभी बड़ी संख्या में अवधूत भेष बारह पंथ के विरक्त नाथ योगी रमते थे। अब भी यहाँ योगियों की काफी बड़ी संख्या है, किन्तु इनमें ज्यादातर अब गृहस्थ हो चुके हैं। परिवारी और गृहस्थी होते हुए भी पीर रत्ननाथ जी के स्थान मठ एवं मंदिर से अब भी उनका करीबी रिश्ता है। यह स्थान कभी बड़ा दुर्गम हुआ करता था, किन्तु अब बढ़नी होते हुए सड़क मार्ग से यहाँ आसानी से पहुँचा जा सका है। जब यह सड़क नहीं बनी थी, तब प्रायः लोग दाङ्ग से पहाड़ पार कर कोयलाबास होते हुए देवीपाटन-तुलसीपुर आते थे। सहस्रों वर्ष पुराने इस मठ में निवास कर चुके अनेक योगेश्वरों में अभी कुछ समय पूर्व ब्रह्मलीन हुए महायोगी परम विरक्त और संस्कृत, हिन्दी तथा नेपाली और नेवारी भाषाओं के प्रकाण्ड पण्डित योगी नरहरि नाथ जी का नाम स्वर्णाक्षरों में लिखने योग्य है। इनके द्वारा संस्कृत, नेपाली तथा हिन्दी भाषा में रचित नाथ-साहित्य का एक विशाल और दुर्लभ संग्रह मठ के पुस्तकालय में अब भी विद्यमान है जिसकी देखरेख अब अच्छी तरह नहीं हो पा रही है। नाथ साहित्य के अनुरागियों और अन्वेषकों के लिए यहाँ का पुस्तकालय बहुत उपयोगी है।
अस्तु सिद्ध श्री रत्ननाथ जी माता पाटेश्वरी के परम भक्त थे। उनकी भक्ति का प्रमाण देते हुए लोग बताते हैं कि वे नित्य दाङ्ङ्ग चौधरा के पहाड़ पार कर देवीपाटन माई का दर्शन करने आते थे। माता ने एक दिन उनकी सेवा से प्रसन्न होकर उनसे वरदान मांगने के लिए कहा। श्री रत्ननाय जी ने माता से प्रार्थना की कि आपके साथ यहाँ मेरी भी पूजा हो और यहाँ उनका भी स्थान हो। माता ने 'तथास्तु' कह कर उनका मनोरथ पूर्ण किया और कहा कि भविष्य में यहाँ मेरे साथ तुम्हारी भी पूजा होगी तथा यहाँ
तुम्हारा स्थान भी होगा। कदाचित् तबसे ही देवीपाटन में सिद्ध रत्ननाथ जी का दरीचा कायम है। इसके भौतिक स्वरूप में यद्यपि समय-समय पर परिवर्तन होता रहा है तथापि वर्तमान भव्य रूप में इसे रूपाकार देने का श्रेय ब्रह्मलीन महंत महेन्द्रनाथ योगी जी को है। इसकी सज्जा में रह गयी कमी को महंत महेन्द्रनाथ जी के अचानक ब्रह्मलीन हो जाने के बाद उनके उत्तराधिकारी वर्तमान श्री महंत मिथिलेश नाथ योगी जी ने पूरा किया है। प्रतिवर्ष चैत्र शुक्ल पंचमी को श्री पीर रत्ननाथ मठ दाङ्ङ्ग-चौधरा नेपाल से पात्र देवता देवी पाटन लाये जाते है। पात्र देवता की यह यात्रा समारोहपूर्वक नाथ योगियों के माध्यम से होती है। यहाँ निर्मित दरीचे में स्थापित कर पात्र देवता की पूजा होती है। पुनः चैत्र शुक्ल नवमी तक यहाँ प्रतिष्ठित रह कर पीर रत्ननाथ के प्रतीक पात्र देवता समारोह पूर्वक यहाँ से विदा होकर वापस दाङ्ग ले जाये जाते हैं। मंदिर में पात्र देवता के निवास स्थल में मठ की ओर से सभी समागत योगेश्वरों का आतिथ्य सत्कार होता ही है वापसी में इन्हें भेंट पूजा भी दी जाती है। पात्र देवता जब तक यहाँ रहते हैं माई के घण्टे और नगाड़े नहीं बजाये जाते और इस अवधि में माता पाटेश्वरी का पूजन भी पीर
रत्ननाथ मठ दाङ्ग चौधरा के पुराजी और योगीजन ही करते हैं।