दोहा : लम्बोदर के पद कमल, धारि हृदय में ध्यान। देवी पाटन चालिसा, रूचिकर करा बखान ।।
जै जै जै पाटेश्वरी, धरौ सदा तव ध्यान। जानि दास निज पद कमल दीजै ज्ञान महान ।।
नमों नमों पाटन की माई। ध्यान करौं में शीश नवाई।
पुवहु आस जानि निज दासा । करौ सदा मेरे हिय वासा।
यश तब छाय रहा जगमाही। पार न पावत सुर मुनि ताही ।
मातु चरित यह वेदहुँ गायो। महिमा अमित पार नहिं पायो।
जग पालन भयहारिणि माया। सुर नर मुनि पर करती दाया।
असुर देव नर मुनिवर ज्ञानी। पूजि रहे पद कंज भवानी।
सकल सात तुम गुण की ज्ञाता। अमर अनादि शक्ति विख्याता।
सुन्दर वेदी चक्र विशाला। शोभा देत फूल की माला।
शोभित ताम्र छत्र अति सुन्दर। अंकित दुर्गा पाठ मनोहर।
ज्योति अखण्ड जरत दिन राती। रक्षक हिय योगिनी मदमाती।
चक्र मध्य है विवर अगाधा। दर्शन किये कटत दुःख बाधा।
जोड़ी वाहन सिंह सवारी। जन दर्शन करि होत सुखारी।
मंदिर संगमरमरी सोहै। तापर स्वर्ण कलश मन मोहै।
कंचन कलश शिखर दुईसोहैं। शोभा निरखि-निरखि जन मोहै।
पूजा होत बन्धन के साथा। सुर नर निरखि नवावत माथा।
पंडित पाठ करत श्रुति केरौ । द्वार होत कीर्तन बहुतेरौ ।
जयति जयति जै जै जगमाता। अमल अखण्ड ज्ञान की दाता।
ब्रह्माण्डों की हो सुख कारन । सदा भक्त की दुःख निवारन ।
वास तुम्हार मन्त्र यन्त्रन में। रचना गद्य पद्य छन्दन में।
जिनके हृदय भक्ति तव राजै। सुयश विश्व में अति छवि छाजै ।
पुरवहु मातु भक्त कर आशा। करहु सदा सज्जन हिय वासा।
मेरे हृदय सुमति उपजाओ। कारज को मां बेगि बनाओ।
शत्रु नाश करि मातु भवानी। अस्तुति करत हृदय मुनि ज्ञानी।
यह स्तुति पाठ करै जो कोई। सुख सुत धन तिसको अति होई।
पूजन करि नित पाठ सुनावै। धन, सपूत जग में सुख पावै।
धरे मनुज जो चित निज ध्याना। संशय मिटत होत दृढ़ ज्ञाना।
रोगी पढ़े रोग मिटि जावै । पुत्रहीन नर संतति पावै।
जपै मातु कर प्रेम से नामा । सो नर सुर पुर पावत धामा।
जै पाटन की मातु भवानी। जन कौ दुःख हरहु कल्याणी।
जे जन भजन करत तजिमाना । अन्तिम पद पावत निरवाना।
अब हिय अन्तर करहु मुकामा। निरमल करहु मातु तन धामा।
जब-जब जन्म लेहुँ जग माही। मिलै भक्ति तब दूजो नाही।
बिनती सुनहु मातु यह मेरी । काम बनावहु निज जन केरी।
नाम प्रताप सकल दुःख हारी। जन भण्डार भरहु महतारी।
दुखिया होय दरबार सिधारे। पाटेश्वरी तिसके दुःख हारे।
प्रेम सहित जो पाटन आवै। पूजन विधि लें थान चढावें।
भक्ति सहित चालिसा सुनावै। बिन प्रयास वांछित फल पावें।
अक्षर बीज जपत चित लाई। मन कामना पूर्ण होई जाई।
बार-बार मैं अरज सुनावहुँ। यह संकट मां और मिटावहु ।
नव निधि अष्ट सिद्धि तव पासा । दै निज जन कीजै दुःख नासा।
प्रेम सहित यह चालिसा, पढ़त सदा चितलाय ।
तिस के मन की कामना, माई देत बनाय ।