देवीभागवत, स्कन्द, कालिका आदि पुराणों तथा शिव-चरित्र आदि तांत्रिक ग्रंथों में विभिन्न शक्तिपीठों, उपपीठों का वर्णन और उल्लेख मिलता है। पिता प्रजापति दक्ष के यज्ञ में पति देवाधिदेव शिव का भाग और स्थान न देखकर उनके अपमान से क्षुब्ध जगदम्बा सती द्वारा प्राण त्याग दिये जाने पर इस दुर्घटना से कुद्ध महादेव भगवान शिव दक्ष यक्ष को नष्ट कर मोहावेश में सती के शव को कन्धे पर रखकर उन्मत्त के समान घूमने लगे, जिसके कारण संसार चक्र में व्यवधान उत्पन्न हो गया, तब भगवान विष्णु ने शिव मोह शान्ति तथा साधकों के कल्याण को दृष्टिगत में रखकर सती के शव के विभिन्न अंगों को चक्र सुदर्शन से क्रमशः काट-काटकर कर्मभूमि भारत के विभिन्न स्थलों पर गिरा दिया। पृथ्वी पर जहाँ-जहाँ देवी माँ का अंग गिरा, वहाँ-वहाँ तत्तत् शक्तिपीठ स्थापित हुए। देशभर में फैले प्रधान एवं प्रमुख शक्तिपीठों की कुल संख्या ११ ही है किन्तु कहीं-कहीं यह ५२ और ५३ भी मिलती है। इतना ही नहीं उपांगों और आभूषणों के गिरने के स्थानों को भी सम्मिलित कर लेने पर पीठों-उपपीठों सहित यह संख्या १०८ भी मिलती है। देवीपाटन, तुलसीपुर जनपद बलरामपुर स्थित श्री माँ पाटेश्वरी देवी का मंदिर भी उक्त शक्तिपीठों में परिगणित एक सुप्रसिद्ध प्राचीन शक्तिपीठ है, जहाँ वामस्कन्ध सहित भगवती सती का पाटम्बर गिरा था। इसीलिए यहाँ स्थापित शक्तिपीठ की देवी का नाम पाटेश्वरी है और उनके नाम पर ही इसे पत्तन (पाटन-नगर) का नाम देवी-पाटन है।
स्थिति: श्री माँ पाटेश्वरी शक्तिपीठ, देवीपाटन, उत्तर प्रदेश के वर्तमान बलरामपुर जनपद में तुलसीपुर रेलवे स्टेशन के पश्चिमोत्तर दिशा में लगभग 3 फलाङ्ग पर सिरिया नदी के तट पर स्थित है। इसके उत्तर में नेपाल, दक्षिण में श्री अयोध्या धाम, पूर्व में सिद्धार्थनगर व बस्ती और पश्चिम में गोण्डा व बाराबंकी जनपद है।
नामकरण : शक्तिपीठ की अधिष्ठात्री देवी का नाम पाटेश्वरी है और यह जहाँ स्थित है, उस स्थान का नाम देवीपाटन है। देवीपाटन का उत्तर-पद पाटन संस्कृत पत्तन शब्द का अपभ्रंश है और इसका अर्थ नगर है। इस प्रकार देवी पाटेश्वरी के नाम पर बसाये गये इस पत्तन-पाटन-नगर का देवीपाटन नाम सर्वथा सार्थक एवं अन्वर्थ है, क्योंकि इस स्थान पर जगदम्बा सती का पाटम्बर-वस्त्र गिरा था, इसलिए कुछ लोग देवी-पाटन में आये पाटन शब्द का संकेत यहाँ गिरे देवी सती के पट-पाट-वस्त्र से मानते हैं, जिसकी पुष्टि एक प्राचीन श्लोक से भी होती है-
पटेन सहितः स्कन्धः, पपात यत्र भूतले।
तत्र पाटेश्वरी नाम्ना ख्यातिमाप्ता महेश्वरी।।
पातालेश्वरी नाम: देवीपाटन स्थित देवी का एक नाम पातालेश्वरी भी प्रसिद्ध है। कहते हैं कि त्रेतायुग में जब अयोध्यापति भगवान श्रीराम ने जनापवाद के भय से जगज्जननी सीता माता को सर्वसमक्ष अपनी पवित्रता सिद्ध करने के लिए कहा तो लंका में अपनी वहि शुद्धि प्रमाणित कर चुकी सीताजी ने इसे असह्य अपमान माना और उन्होंने लज्जा से धरती में गड़ते हुए पृथ्वी माता से प्रार्थना की कि वे फट जाएं और उन्हें अपनी गोद में समा लें। सीता माता की प्रार्थना से पृथ्वी फट गयी और उस विवर से एक सिंहासन निकला, जिस पर स्वयं धरती माता बैठी थीं, उन्होंने सीताजी को अपनी गोद में बैठाया और वे उन्हें लेकर वापस पाताल में समा गयीं। माता सीता का पाताल गमन देवी पाटन में ही हुआ था, ऐसा लोगों का विश्वास है। अतः इसका पातालेश्वरी नाम भी लोक प्रसिद्ध है। वाल्मीकि रामायण के उत्तरकाण्ड में भगवती सीता के पाताल प्रवेश की कथा वर्णित है। देवीपाटन मंदिर के गर्भगृह में पाताल तक चली गयी एक सुरंग अभी भी विद्यमान है, जिसके मुहाने पर एक चबूतरा बना दिया गया है, जिस पर कपड़ा बिछा रहता है और भक्तजन पुष्प, अक्षत और प्रसाद चढ़ाते हैं। मंदिर में मूर्ति स्थापना के बहुत पहले से श्रद्धालुजन इसी विवर स्थल की पूजा पातालेश्वरी देवी के रूप में करते रहे हैं।
पुराणों के अतिरिक्त देवीपाटन मठ-मंदिर का वर्णन अवध गजेटियर (जिल्द सं० १ पृ० ३६७, सन् १८७१ ई०) एवं
इम्पीरियल गजेटियर (जिल्द सं० ४ पृ० ३६४, सन् १८८५ ई०) में भी मिलता है।
श्री परशुराम और कर्ण की साधना भूमि देवीपाटन की महिमा और महत्ता को प्रकट करने के लिए 2 और पौराणिक महापुरुषों के इस स्थान से निकट सम्बन्ध का भी उल्लेख आवश्यक है। दशावतारों में छठवें भगवान परशुराम ने अपनी तपश्चर्या से इस स्थान की महत्ता बढ़ाई थी और द्वापर में यहीं सूर्यपुत्र महारथी कर्ण ने भगवान परशुराम
से दिव्यास्त्रों की शिक्षा ली थी। कहते हैं कि यहाँ स्थित सूर्यकुण्ड में स्नान कर प्रतिदिन कर्ण भगवान सूर्य की उपासना किया करता था। यहाँ कर्ण की एक प्रस्तर मूर्ति आज भी सुरक्षित है, जिससे द्वापर के दानवीर महारथी कर्ण का इस स्थान से सम्बन्ध प्रमाणित होता है।
मंदिर निर्माण: अस्तु सत्य युग में यहाँ भगवती सती के
वामस्कन्ध सहित पाटम्बर के गिरने, त्रेता में भगवती सीता के यहाँ पाताल में समाने और द्वापर में यहाँ महारथी कर्ण के धनुर्वेद शिक्षण की घटनाओं से सम्बन्धित इस अत्यन्त प्राचीन स्थान पर सर्वप्रथम मंदिर-निर्माण का जो उल्लेख मिलता है, वह महायोगी गुरु श्री गोरक्षनाथ जी से सम्बन्धित है। देवीपाटन में उपलब्ध एक शिलालेख पर अधोलिखित श्लोक मिलता है-
महादेव समाज्ञप्तः सतीस्कन्ध विभूषिताम्।
गोरक्षनाथो योगीन्द्रस्तेने पाटेश्वरीमठीम्।।
अर्थात् महादेव शिव की आज्ञा से योगिराज श्री गोरक्षनाथ जी ने देवी सती का (वाम) स्कन्ध जहाँ गिरा था, वहाँ एक मढ़ी का निर्माण कराया। देवीपाटन में मंदिर निर्माण का यह प्रथम उल्लेख है और इससे यह ज्ञात होता है कि यहाँ देवी (सती) का वाम स्कन्ध गिरा था। पुनश्च शिवावतार के रूप में हठयोग के प्रसिद्ध प्रतिष्ठापक परमाचार्य महायोगी गुरु श्री गोरक्षनाथ जी ने भी यहाँ साधना और उपासना की थी। जनश्रुति है कि वैदिक संस्कृति और धर्मस्थानों के पुनरुद्धर्ता संवत् प्रवर्तक वीर विक्रमादित्य ने कालक्रम से जीर्ण हो गये देवीपाटन के इस मंदिर का भी जीर्णोद्धार कराया था। इसके पश्चात् 1,000 वर्षों तक इतिहास के पृष्ठों में इस मंदिर का विशेष उल्लेख नहीं मिलता, किन्तु बाद के उल्लेखों में यह प्रमाणित है कि यह स्थान नेपाल से लेकर भारत तक लोगों की आस्था और श्रद्धा का निरन्तर केन्द्र बना रहा था, जिसके कारण असहिष्णु मुस्लिम आक्रान्ताओं की कुदृष्टि इस पर पड़ी। सबसे पहले सैय्यद सालारजंग मसूद गाजी ने बहराइच के प्रसिद्ध सूर्य मंदिर को तोड़ने के बाद, देवीपाटन के मंदिर को भी तोड़ने के लिए अपनी सेना की एक टुकड़ी भेजी थी, जिसे कदाचित् अपने उद्देश्य में प्रबल जन-प्रतिरोध के कारण सफलता नहीं मिली। पुनः एक बार मुगल बादशाह औरंगजेब ने अपने एक सिपहसालार मीर समर को इस मंदिर को ध्वस्त करने के लिए भेजा। कहते हैं- अपने आक्रमण में मीर समर ने मुख्य पूजा स्थल, जो अर्धे के रूप में है और जहाँ से माँ सती का अंग पाताल में समा गया था या सीताजी पाताल में समा गयी थी, उसमें बाँस डालकर उसकी गहरायी नापने का प्रयास किया। अचानक चामत्कारिक रूप से उस सुरंग से भारी संख्या में सारंगा मधुमक्खियाँ बाहर निकलीं और उन्होंने अपने जहरीले दंश से विकल कर विधर्मी सैनिकों को भगा दिया। मधुमक्खियों के इसी प्रत्याक्रमण में जो एक दैवीय चमत्कार के रूप में माना जाता है, मीर समर मारा गया। मंदिर के बाहर परिसर में दांयी ओर अभी भी दैवीय प्रकोप के शिकार मीर समर की कब्र बनी हुई है, जहाँ पहले कभी प्रत्यक्ष रूप से और अब प्रतीक रूप में सूकर की बलि चढ़ायी जाती है।
देवीपाटन का निकट सम्बन्ध नेपाल से भी रहा है और कभी यह नेपाल में ही सम्मिलित था। पाटन नामान्त बहुत से देवस्थान अभी भी नेपाल में मिलते हैं। कुछ लोग इसलिए देवीपाटन मंदिर को भी नेपाली मूल का ही मानते हैं। नेपाल स्थित दाङ्ग-चौघरा स्थान के पीर रत्ननाथ मठ का इससे अब तक कायम निकट सम्बन्ध भी इसी बात का परिचायक है। जो भी हो नाथ योगियों की देखरेख एवं व्यवस्था के अन्तर्गत यह देवी मंदिर प्रारम्भ से ही रहने के बावजूद काफी समय तक महाराजा बलरामपुर की रियासत का भी हिस्सा था, जो अखिल भारतवर्षीय अवधूत भेष बारहपंथ योगी महासभा के संस्थापक अध्यक्ष युगपुरुष ब्रह्मलीन महंत दिग्विजयनाथ जी महाराज के समय में योगी महासभा को सम्यक्तया हस्तान्तरित हुआ।
यद्यपि देवीपाटन स्थित श्री माँ पाटेश्वरी देवी के इस मंदिर की प्राचीनता को देखते हुए यहाँ के श्री महंतों की सुदीर्घकालीन परम्परा का अनुमान ही संगत है, तथापि लौकिक जीवन के प्रति उदासीन भाव रखने वाले योगियों के स्वभाव के अनुसार यहाँ के श्री महंतों में कुछ के ही नाम ज्ञात होते हैं, जो क्रमशः इस प्रकार हैं- सर्वश्री महंत गंगानाथ, टेकनाथ, पटपटाई नाथ, सरूपनाथ, हीरानाथ, भोलानाथ, भंभूलनाथ, शान्तिनाथ, महेन्द्रनाथ योगी और वर्तमान श्री महंत मिथिलेश नाथ योगी जी। इस मठ से अपने समय के भारत प्रसिद्ध महायोगी बाबा गम्भीरनाथ जी का भी नाम जुड़ा है और नाम पंथ के एक और प्रख्यात विद्वान और योगी श्रीनरहरिनाथ जी (सम्प्रति, ब्रह्मलीन) तथा उनके गुरु श्रेयोनाथ जी भी यहाँ साधनारत रह चुके हैं।
हमें विश्वास है कि यह मठ और मंदिर अपने अधिकारियों की देख-रेख में इसी प्रकार धार्मिक और आध्यात्मिक मूल्यों के साथ लोक कल्याण और हिन्दू जागरण के अभीष्ट लक्ष्य की ओर निरन्तर बढ़ता रहेगा।
गोरक्षपीठाधीश्वर, महंत
योगी आदित्यनाथ