राष्ट्रसंत ब्रह्मलीन महंत
अवेद्यनाथ जी महाराज
सम्पूर्ण देश में श्रद्धा और भक्ति के साथ सम्मान्य और प्रतिष्ठित शक्तिपीठों में तुलसीपुर, बलरामपुर स्थित श्री माँ पाटेश्वरी शक्तिपीठ देवीपाटन का भी महत्वपूर्ण स्थान है। यह भारतवर्ष और नेपाल, दोनों देशों के धर्मप्राण श्रद्धालु नागरिकों के बीच समान रूप में शताब्दियों से लोकप्रिय मनोवांछित फलदायी जाग्रत सिद्ध-स्थान है। पिता प्रजापति दक्ष के यज्ञ में अपने पति देवाधिदेव महादेव शिव का भाग एवं स्थान न देखकर उनके अपमान से विचलित होकर योगबल से वहीं प्राण त्यागने वाली जगदम्बा सती का शव लेकर जब शिवजी निरन्तर उन्मत्तवत् परिभ्रमण कर रहे थे, तब सृष्टिकार्य के बाधित होने से चिन्तित देवों की प्रार्थना पर भगवान श्री विष्णु ने सदाशिव के मोह को समाप्त कर उन्हें पुनः प्रकृतिस्थ करने के लिए चक्र से क्रमशः सती के एक-एक अंग-उपांग काटकर धरती पर गिरा दिये। जहाँ-जहाँ ये अंग गिरे, कालान्तर में वहाँ-वहाँ तत्तत् शक्तिपीठों का निर्माण हुआ।
अस्तु, जहाँ वाम स्कन्ध सहित सती देवी का पाटम्बर गिरा था, वही स्थान अब देवीपाटन के नाम से प्रसिद्ध है। कालान्तर में
आदिनाथ भगवान शिव की आज्ञा से शिवावतार महायोगी गुरु श्री गोरक्षनाथ जी ने यहाँ देवी की पूजा-अर्चना के लिए एक मठ का निर्माण कराया और स्वयं काफी समय तक जगज्जननी की पूजा करते हुए यहाँ वे साधनारत रहे। इस प्रकार यह स्थान एक सिद्ध शक्तिपीठ होने के साथ-साथ सिद्ध योगपीठ भी है। देवीपाटन की देवी का एक दूसरा भी प्रसिद्ध नाम तथा इतिवृत्त पातालेश्वरी देवी के रूप में प्राप्त होता है। कहते हैं कि अयोध्या की महारानी जगज्जननी सीताजी लोकापवाद से खिन्न होकर अन्ततः यही धरती को फाड़कर प्रकट हुईं, धरती माता की गोद में बैठकर पाताल में समा गयी थीं। इसी पातालगामी सुरंग के ऊपर देवीपाटन/पातालेश्वरी देवी का मंदिर बना हुआ है। यह भी प्रसिद्ध है कि यह दिव्य क्षेत्र दशावतारों में छठें परशुराम जी की तपोभूमि है तथा यही उनसे महाभारत कथा के एक नायक सूर्य-पुत्र कर्ण ने धनुर्वेद की शिक्षा ली थी। यहाँ स्थित सूर्यकुण्ड इस जनश्रुति की पुष्टि करता है, जिसमें श्रद्धा-विश्वास सहित स्नान कर देवी का दर्शन करने वालों का चर्म रोग दूर होता है और यहाँ स्थित कर्ण की एक प्राचीन प्रतिमा भी इसके प्रमाण के रूप में विद्यमान है। देवीपाटन का मंदिर सबसे पहले कब बना और किसने बनवाया था, यह इदमित्यं रूप से बताना तो कदाचित संभव नहीं है, किन्तु कुछ पुराणों तथा तन्त्र-ग्रन्थों में उल्लेख और महायोगी गुरु श्री गोरक्षनाथ जी, भगवती सीता, भगवान परशुराम एवं दानवीर कर्ण की स्मृतियों से जुड़ा होने के कारण निश्चय ही यह एक अत्यन्त प्राचीन स्थान है। जहाँ एक शिलालेख के अनुसार यहाँ प्रथम मंदिर निर्माण का श्रेय गुरु श्री गोरक्षनाथ जी को है, वहीं एक जनश्रुति के अनुसार- प्रसिद्ध भारतीय सम्राट वीर विक्रमादित्य ने अपने समय में इसका जीर्णोंद्धार कराया था। विधर्मी मुसलमानों के आक्रमण एवं प्रभाव विस्तार काल में अन्य हिन्दू-धर्मस्थलों की तरह इस मंदिर को भी तोड़ने के कई प्रयास हुए थे, जिसमें श्रद्धालु जनता के सफल प्रतिरोध के कारण उन्हें सफलता नहीं मिली। यहाँ तक कि मंदिर तोड़ने आये मुस्लिम सिपहसालार मीर समर को यहाँ अपनी जान भी गंवानी पड़ी, जिसकी कब्र मंदिर के बाहरी परिसर में ही बनी है।
शक्ति-पूजा एवं योग साधना का यह जाग्रत स्थान व्यवस्था की दृष्टि से कालक्रम से अनेक हाथों से होता हुआ भारत की स्वतंत्रता के बाद अखिल भारत वर्षीय अवधूतभेष बारह पंथ योगी-महासभा के अन्तर्गत श्री गोरक्षनाथ मंदिर के संरक्षकत्व में मेरे परम पूज्य गुरुदेव युगपुरुष महंत दिग्विजयनाथ जी महाराज के समय में आया। तब से इसमें काफी सुधार, निर्माण एवं विस्तार भी हुआ है, जो अब भी निरन्तर जारी है।
इसके अभी कुछ वर्ष पूर्व ब्रह्मलीन हुए महंत महेन्द्रनाथ ने मंदिर सहित सम्पूर्ण परिसर के सुन्दरीकरण, आधुनिकीकरण एवं जनसुविधाओं के विस्तार आदि का सराहनीय कार्य किया था, जिससे स्थान की महत्ता और लोकप्रियता में बहुत वृद्धि हुई है और इस शक्तिपीठ के इतिहास एवं माहात्म्य को जानने के लिए लोगों में जिज्ञासा और उत्सुकता भी बढ़ी है।
राष्ट्रसंत ब्रह्मलीन महंत
अवेद्यनाथ जी महाराज